Sunday, April 30, 2017

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Sunday, March 19, 2017

नाथ सम्प्रदाय


 
नवनाथ
प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ ने पहली बार व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रूप में जाना जाता है।
परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।
इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं।

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नाथ सम्प्रदाय


नवनाथ
प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ ने पहली बार व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रूप में जाना जाता है।
परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।
इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं।

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नाथ संप्रदाय: एक पुनर्गवेषणा

प्रस्तावना

विष्व मेंं मानव समाज अपनी इकाइयों के प्रत्येक स्तर पर अपने दर्षन, संस्कृति, साहित्य और इतिहास को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयास मेंं लगा रहता है, जिसके कारण मानव समाज का इतिहास युद्ध की घटनाओं का संकलन और पर्याय बनकर रह गया है। दर्षन को इतिहास बनने तक एक बहुुत बड़ा मार्ग तय करना पड़ता है। जीवन और जीवन पद्धति के सम्बन्ध मेंं पूर्ण र्इकार्इ द्वारा किया गया चिन्तन दर्षन है। इस दर्षन को व्यäयिें के एक समूह द्वारा अपनाये जाने पर वह संस्कृति बनता है। संस्कृति जनित अनुभव को गध या पध रूप मेंं लिपिबद्ध करने पर वह साहित्य बन जाता है।
अब तक के स्तर पर सबकुछ स्वतन्त्र होता है। आवष्यक नहींं कि आप सम्पूर्ण दर्षन को अपनाकर पूर्ण रूपेण संस्कारित हों और सम्पूर्ण संस्कार साहित्य मेंं सिमट सकें। दर्षन के अनुयायी संस्कारों को क्षमता अनुसार पूर्ण रूपेण अपनाने या न अपनाने के लिये स्वतन्त्र होते हैं। किन्तु इतिहास लिखने और लिखवाने वाले व्यä बिहुत कम होते हैं। उनमेंं भी इतिहास लिखने वाली र्इकार्इ कभी भी स्वतन्त्र नहींं होती, यदि ऐसा होता तो पौराणिक काल में भगवान विष्णु द्वारा अमृत बांटने मेंं किये गये छल को विष्णुचातुर्य की संज्ञा नहीं दी जाती, महाकाव्य काल मेंं विभीषण जैसे देषæोही और कुलघाती को भä षिरोणि नहींं कहा जाता। रामायण के ही सन्दर्भ में और अधिक विचार करें तो चातुर्मास समापित के बाद वानरराज सुग्रीव द्वारा सीता की खोज के अभियान के बाद लंका तक पुल बनने में लगने वाले समय और राम की सेना के लंका पहुंच जाने के बाद युद्ध का वास्तविक समय 84 (चौरासी) दिन है जो वैषाख चतुर्दषी अथवा अमावस्या को रावण के मारे जाने पर समाप्त होता है। वैषाख कृष्ण चतुर्दषी अथवा अमावस्या के स्थान पर रावण पर राम की विजय के रूप में आषिवन मास के शुक्ल पक्ष की दषमी को विजयदषमी के रूप में क्यों और कब मान्यता दी गयी एक पृथक शोध का विषय है। इसी महाकाव्य की महत्वपूर्ण घटना देव-असुर संग्राम में रावण के व्यंग्य से आहत कैकयी द्वारा रावण के दर्प दमन हेतु किये गये निष्चय की पूर्ति के लिये राजा दषरथ से अपने दो वरदान के रूप में तत्कालीन आसुरी शकितयों को समाप्त करने के लिये सबसे अधिक सक्षम श्रीराम को वन भेजने और भरत को अयोध्या की रक्षा का उत्तरदायित्व दिये जाने की घटना को सौतेली मां के चरित्र के रूप में अंकित नहीं किया जा सकता था। अपने परिवार के सदस्यों की समस्त बुराइयों को अच्छे से अच्छे षब्दों मेंं ढंकने के साथ धर्मराज युधिषिठर सुयोधन जैसे सुयोद्धा को दुर्योधन और सुषासन जैसे अच्छे प्रषासक का नाम दु:षासन नहींं लिखवा सकता था। दास भाव से लिखे गये रामायण महाकाव्य में श्रीराम के विवादास्पद व्यवहारों को रामलीला कहकर अलंकृत तथा पत्नी के समीप रहते हुए भी सहवास के त्याग करने वाले भरत के समर्पण, पति के साथ रहने वाली सीता की भूमिका के समक्ष लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के त्याग व सेवा की उच्चता को विस्मृत नहीं किया जा सकता था। अंगे्रज आर्यों को भारत मेंं बाहर से आये हुए नहींं लिखवा सकते थे और वर्तमान मेंं दिखाये जा रहे दूरदर्षन धारावाहिकों मेंं इतिहास की घटनाओं और साहित्य की रचनाओं को मनमाने तरीके से प्रस्तुत नहींं जा सकता था।
दर्षन एक पूर्ण र्इकार्इ द्वारा किया गया चिन्तन है। चिन्तन को संस्कृति रूप मेंं अपनाने वाली र्इकार्इ उस पूर्ण र्इकार्इ की अनुयायी है। साहित्य सृजन करने वाली र्इकार्इ या तो भ्रमित होकर आलोचनात्मक रचनाएं करती है अथवा अनुयायियों मेंंं श्रेष्ठ होकर उनका नेतृत्व करती हैं, किन्तु इतिहास लिखने वाली र्इकार्इ सबसे निम्न स्तर पर होती है और इसीलियेे पूर्णतया परतन्त्र भी। यही कारण है कि, इतिहास का बारम्बार दोहन होता रहता है और वास्तविकता जानने के लियेे षोध करना पड़ता है। साहित्य मेंं केवल वास्तविकता होती है। इसका दोहन नहींं होता तथापि साहित्य की एक सीमा है। साहित्य सम्पूर्ण संस्कृति को नहींं समेट पाता किन्तु फिर भी संस्कृति और दर्षन का प्रतिबिम्ब होने के कारण एक प्रकार से दर्षन के समान ही पूर्ण होता है। मानव समाज के समूह विषेष के दर्षन की झलक उसकी संस्कृति मेंं और संस्कृति का आभास उसके साहित्य मेंं मिलता हैं, किन्तु साहित्य इतिहास का जनक होते हुए भी अपनी पहचान बनाने के लियेे इतिहास पर आश्रित होता है। फिर भी यदि कोर्इ साहित्य इतिहास नहींं बन सका तो यह इतिहास का अधूरापन तो हो सकता है क्योंकि यह अपूर्ण इकाइयों द्वारा पोषित होता है किन्तु यह (साहित्य) सदा सर्वदा महत्त्वपूर्ण बना रहता है और जब कभी इतिहास की Üांृखला कहीं से टूटी-बिखरी नज़र आती है तो साहित्य ही उसे जोडने का काम करता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ भी एक छोटी सी किन्तु लेखक के मानस पटल पर गहरी छाप छोड़़ने वाली घटना का परिणाम है। इस ग्रन्थ का आरम्भ भी मूर्धन्य विद्वान स्वर्गीय नन्दकिषोर पारीक की राजस्थान पत्रिका़ मेंं प्रकाषित नगर परिक्रमा नामक लेखमाला मेंं योगी तारानाथ तथा Ñष्णदास पयहारी के संबन्ध मेंं प्रकाषित एक घटना का सही चित्र सामने लाने के प्रयास से हुआ था जो प्रारम्भ मेंं केवल आठ-दस पृष्ठों का एक लेख मात्र था। जयपुर मेंं नाथ सम्प्रदाय के असितत्व, उत्थान और पतन के सम्बन्ध मेंं समय-समय पर तथ्यहीन और अनर्गल लेख छपते रहे हैं और इस Üांृखला मेंं साधारण व्यä हिी नहींं वरन मूर्धन्य विद्वज्जन भी षामिल हैं। इस क्रम मेंं राजस्थान पत्रिका के नगर परिक्रमा स्तम्भ मेंं स्वर्गीय नन्दकिषोरजी पारीक द्वारा न केवल जयपुर वरन राजस्थान भर मेंं नाथ सम्प्रदाय के संबन्ध मेंं एकत्रित की गयी विषय सामग्री एवं उसकी प्रस्तुति वास्तविक अर्थ मेंं एक भागीरथ प्रयास था। किन्तु न मालूम किन कारणाें से उनके द्वारा प्रस्तुत Üांृखला मेंं जयपुर जलमहल की तलहटी मेंं सिथत नाथ सम्प्रदाय के रामपंथ के प्रमुख आसन की कड़ी चर्चा मेंं आने से रह गयी। जिसके कारण योगी तारानाथ और श्री Ñष्णदास पयहारी के संयोग की एक सुखद घटना विÑत रूप मेंं प्रस्तुत हुर्इ। वास्तविकता यही है कि, 16 जनवरी 1992 को राजस्थान पत्रिका के ‘नगर परिक्रमा स्तम्भ में योगी श्री तारानाथ और श्रीकृष्णदास पयहारी की भेंट की घटना के संबंध में प्रकाषित शब्दों ने ही इस ग्रंथ की रचना का सूत्रपात किया जो प्रारम्भ में मात्र आठ-दस पृष्ठों तक सीमित था। तथ्यों की तलाष में अनेक स्थानों की यात्रा, अनेक पुस्तकालयों की परिक्रमा, पुस्तक मेलों में दिनभर प्रत्येक संभावित स्टाल पर पूछताछ, असंख्य पुस्तकों का दोहन, अनेक मनीषियों से चर्चा, विद्वानों से वार्ता और कभी वाद-विवाद से निकले निष्कषोर्ं से ग्रन्थ का विस्तार होता गया। सम्प्रदायों के इतिहास सहित नाथ सम्प्रदाय की पौराणिक, सामाजिक, दार्षनिक व ऐतिहासिक महिमा, जातियों का उत्थान व विकास क्रम और अन्य तथ्य आधारित तार्किक गवेषणा अग्रांकित पंäयिें को पर्याप्त पृष्ठभूमि व आधार देती है। उस लेख मेंं दिये गये तथ्यों से उद्वेलित मित्रों के परामर्ष से धीरे धीरे सामग्री जुटने और अध्ययन बढने के साथ साथ वह लेख ग्रन्थ का आकार लेता गया। हालांकि महामना श्री नन्दकिषोरजी पारीक की सषक्त लेखनी ने ऐतिहासिक तथ्यों को यथारूप और बहुत प्रभावी प्रस्तुति दी है किन्तु किसी-किसी स्थान पर जयपुर में पुरोहितों के पक्ष में नाथयोगियों के विरूद्ध आक्रामक और साथ ही अपनी निष्पक्षता को सन्तुलित करने के लिये सहानुभूतीपूर्ण शब्दों का प्रयोग भी करती दिखार्इ पडती है। उदहारणार्थ जयपुर में नाथ संप्रदाय के मठ-मनिदर शीर्षक से प्रकाषित कडी में जयपुर की स्थापना को महायोगी गोरक्षनाथ के चौतीसा यन्त्र के आधार पर होने को यह कहते हुए प्रष्चचिन्ह लगाते हैं कि इसका कोर्इ प्रमाण नहीं है। फिर उन्हें समन्वयवादी बताते हुए नाथपंथ का आदर करने वाला बताकर विवाद को विराम भी देना चाहते हैं। निसन्देह सवार्इ जयसिंह वैष्णव था किन्तु उसके वैष्णव होने से जयपुर स्थापना में महायोगी गोरक्षनाथ के चौतीसा यन्त्र की भूमिका और उपयोगिता समाप्त नहीं हो जाती। चौतीसा यन्त्र के आधार पर नगर की तानित्रक स्थापना में सर्वप्रथम दक्षिणमुखी षिवलिंग और उसके सहयोगी देवताओुं की स्थापना की जाती है। नयी पीढी की तो बात ही दूर है पुराने बुजर्ग भी नहीं जानते कि जयपुर में दक्षिणमुखी षिवलिंग और उसके सहयोगी देवों की स्थापना सिटीपैलेस की चारदीवारी में ही जन्तर-मन्तर के उत्तरपूर्वी कोने में और गुप्तेष्वर महादेव (जयपुर राज परिवार के श्मषान गैटोर सिथत गुप्तेष्वर महादेव नहीं) नाम से ऐसा ही एक तानित्रक कि्रया अनुसार तत्समय ही स्थापित षिव परिवार जन्तर-मन्तर के उत्तर-पषिचमी भवन में हैै। फिर चौतीसा यन्त्र के आधार पर ही नगर के दरवाजों, चौपडों, चौकडियों (आवासीय बस्तीयां), देवालयों आदि का निर्धारित आकार एवं सख्या में निर्माण किया गया। चौतीसा यन्त्र के आधार पर निर्मित नगर प्राकृतिक आपदाओं से मुक्त होना कहा जाता है। प्रमाण यही है कि 1980-81 में जयपुर की चौपडों के आकार एवं स्वरूप में परिवर्तन नहीं होने तक जयपुर प्राकृतिक आपदाओं से अछूता रहा। इसी प्रकार श्री नन्दकिषोरजी पारीक जयपुर में नाथ संप्रदाय के मठ-मनिदरों की सूचि बताते हुए संषय उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं कि इनमें से कौन से नाथयोगियों से संबद्धित है कहना कठिन है। बहरहाल… महामना श्री नन्दकिषोरजी पारीक के प्रति पूर्ण श्रद्धा सहित नमन करते हुए लेखक स्वर्गीय नन्दकिषोरजी पारीक का âदय की अन्तर्तम गहराइयों से आभारी है जिनकी लेखनी ने एक अपराध अनुसन्धानकर्ता को वास्तविक अथोर्ं मेंं सत्य अन्वेषण के मार्ग मेंं प्रवृत्त कर दिया।
यूं तो लेखक पेषे से एक पुलिस अधिकारी है और साहित्य से संबन्ध के नाम पर उदर्ू मेंं कविता लेखन करता रहा है। लेखक की कविताओं को मिंत्रों द्वारा संगोषिठयों मेंं प्रषंसा मिलती रही किन्तु, लेखक ने उनके प्रकाषन के लियेे कभी गम्भीर प्रयास नहींं किये। स्कूल और कालेज में आवष्यक हिन्दी व अंग्रेजी साहित्य के साथ कतिपय उर्दू कहानियों व कविताओं का मार्ग में आने वाले स्वाभाविक दृष्यों से अधिक महत्व व मूल्य नहीं रहा। दार्षनिक साहित्य के नाम पर केवल मां के द्वारा गीता अध्ययन, नवरात्रों में रामलीला और यदा कदा रात्री जागरणों में छुटपुट व्यवस्थाओं के निमित्त जागरण स्थान पर बने रहने से निगर्ुण व सगुण भजनों को सुन लेने से अधिक कोर्इ सरोकार नहीं रहा। गीता अध्ययन में भी सर्वाधिक याद रहा श्लोक क्लैब्यं मा स्मगम: पार्थ नैतत्व युपपधते। ह्रदय दोर्बल्यं त्यक्त्वोतिष्ठ परन्तप।। था जो कालान्तर में मेरी जोखिम उठाने और साहसिक कायोर्ं में पृवृत होने का हेतुक बना। दर्षन संबंधी इतिहास से जुडी इस ग्रन्थ की विषय वस्तु भी साधारण पाठकों के लियेे रुचिकर और उपयोगी नहींं है, इस सत्य से लेखक परिचित है किन्तु नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों के लियेे यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा और विद्वानों के समक्ष नाथ सम्प्रदाय के अनछुए प्रसंगों का प्राकटय होगा ऐसा लेखक का विष्वास है। लेखक का प्रयास रहा है कि, मूल सन्दर्भ ग्रन्थों का अवलोकन और अध्ययन कर सके। किन्तु व्यावहारिक समस्या रही कि राजस्थान विधान सभा में कनिष्ठ लिपिक के पद पर कार्यरत श्री सत्यनारायण योगी के सहयोग से वर्ष 1988 में विधान सभा के पुस्तकालय से जार्ज डब्ल्यू. जे. बि्रग्स के महान शोध गोरक्षनाथ एण्ड दर्षनी योगीज का केवल जिज्ञासावश जो अध्ययन किया था, आवश्यकता पड़ने पर वह पुस्तक नहीं मिली। विधानसभा पुस्तकालय के केटलाग में इस पुस्तक का कार्ड तो है किन्तु पुस्तक का कोर्इ अता-पता नहीं है। प्रत्येक पुस्तक मेले में इस ग्रंथ के बारे में पूछते रहने पर राजस्थान साहित्य अकादमी, साहित्य ग्रंथागार जोधपुर द्वारा अगली बार उपलब्ध कराने के आष्वासन मृग मरीचिका ही बने रहे। बहुत तलाष करने के बाद माह जून, 06 में राजकार्य वष अजमेर जाने पर ब्यावर निवासी नाथवाणी के संपादक, साहित्यकार व नाथ सम्प्रदाय के पुरोधा योगी श्री मिश्रीनाथ के पास इस ग्रंंथ के दर्षन हुए। एक दिन के लिये भी विछोह स्वीकार नहीं होना इस दुर्लभ ग्रंथ के प्रति उनकी आस्था व उपयोगिता का प्रमाण थी। किन्तु इतना अवष्य लाभ हुआ कि इस ग्रंथ का नवीनतम प्रकाषन वर्ष 2001 में प्रकाषक मोतीलाल बनारसीदास द्वारा होना ज्ञात हुआ। प्रकाषक कम्पनी के दिल्ली सिथत कार्यालय में सम्पर्क करने पर इस ग्रंथ की अत्यधिक मांग होना तो बतायी गयी किन्तु कोर्इ प्रति उपलब्ध नहीं हुर्इ। निकट भविष्य में पुन: मुदि्रत करने की योजना अवष्य बतायी गयी। बहुत समय तक कोर्इ सकारात्मक प्रतिकि्रया इंगित नहीं हुर्इ। संयोग कुछ ऐसा रहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मिषन (जनवरी 2008 से मार्च 2009) से अवकाष के दौरान भारत आगमन पर सूडान में भारत के राजदूत श्री दीपक वोहरा के लिये आचार्य चतुरसेन के ऐतिहासिक उपन्यास वयं रक्षाम: की खरीद के सिलसिले में यूं ही जिज्ञासा और आदतवष पूछने और चर्चा करने पर एक पुस्तक विक्रेता ने दिल्ली में प्रकाषक से वार्ता की और अन्ततोगत्वा तीन माह पश्चात सितम्बर 2008 में उक्त पुस्तक प्राप्त होने की सूचना पुस्तक विक्रेता ने मुझे र्इ.मेल से दी तो मै स्वंय को रोक नहीं पाया और मैं भारत आया और उक्त पुस्तक को अपने साथ ले गया।
यही सिथति वेदों की रही। सत्य कहूं तो मेरी इतनी सामथ्र्य भी नहीं है कि, मैं वेदों का अध्ययन शोध और समीक्षा के दृषिटकोण से कर सकूं। हां… पत्र-पत्रिकाओं में विद्वानों के लेख और विचाराें के अध्ययन, अनुशीलन व सत्यापन में हमेंशा मेरी रुचि रही है, उन्हें यथारूप स्वीकार कर लेने की प्रवृत्ति नहीं रही। अत: मैं यह स्वीकार करता हूं कि वेदों के मूल ग्रन्थों का अध्ययन तो दूर मैंने उनका दर्शन भी नहीं किया, किन्तु मेरा विश्वास है कि, गीता प्रेस गोरखपुर से छपने वाली पत्रिका कल्याण में प्रकाशित सामग्री के मूलत्व में किसी को कोर्इ संशय नहीं है। फिर भी, पुस्तक मेले से वेदों का हिन्दी भाषा में रूपान्तरित प्रकाषन अध्ययन हेतु क्रय किया, जो मेरे संकलन में समिमलित है।
द्वितीयत: नाथ सम्प्रदाय के संबंध में शोधकर्ताओं में से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रांगेय राघव, डा. कोमलसिंह सोलंकी, मोहन सिंह आदि अनेक महामनाओं ने जिन ग्रन्थों का सन्दर्भ अपनी रचनाओं में दिया है वह सर्वकालिक प्रमाणित है। कोर्इ नवीन अर्थ दिये बिना किसी तथ्य का पुन: प्रतिपादन रचना का अनावश्यक विस्तार ही कर सकता है। अत: तथ्यों के पुन: प्रतिपादन से शत-प्रतिशत बचने का प्रयास किया है फिर भी आवश्यकता और अपरिहार्यतावश किंचित अंषों का पुन: प्रतिपादन अवष्य हुआ है।
पाठकवृन्द से एक निवेदन अवश्य करना चाहता हूं कि मैं इतिहास, दर्शन और संस्कृति का विधार्थी नहीं रहा। इन विषयों एवं विषेषत: इनके शोध कार्य से मेरा दूर-दूर तक संबंध नहीं है। यहां तक कि इस पुस्तक की पाण्डुलिपि में जोघपुर निवासी मेरे रिष्तेदार एवं मित्र कवि मीठेष निर्मोही और उनके मित्र जोधपुर विश्वविधालय के डा0 दाधीच द्वारा निकाली गयी वर्तनी की अशुद्धियों से अपने हिन्दी के ज्ञान को पुन: परिभाषित करने की आवश्यकता अनुभव हुर्इ। मै âदय की अन्तर्तम गहराइयों से उनका आभारी हूं जिन्होेंने लेखन के मेरे इस प्रयास को सराहा, संवारा और संशोधित किया। इसी क्रम में एक सामाजिक काय्रक्रम में 9-10 सितम्बर, 09 को दिल्ली में वेदिक शोध संस्थान कण्वाश्रम, गढ़वाल के निदेषक वेदवाचस्पति डा. लक्ष्मीचन्द्र शास्त्री जी से भेंट हुर्इ। परिचय और प्रसंगवष इस ग्रंथ की पाण्डूलिपि की एक प्रति लेकर अध्ययन एवं अनुषीलन के पश्चात एक माह की अवधि में लौटाने की बात कही किन्तु चार दिन बाद ही टेलीफोन पर उनके द्वारा विषयवस्तु की गम्भीरता, तथ्यों के महत्व, और प्रस्तुति की रोचकता की चर्चा करते हुए इसका अनवरत अध्ययन करने के लिये विवषता शब्द का प्रयोग किया गया और एक सम्ताह से भी कम समय में उनके द्वारा सम्पूर्ण सामग्री का प्रक्षालन किया जाकर पुन: 225 वर्तनियों की शुद्धि और कतिपय स्थानों पर मार्गदर्षन भी अंकित किया गया। मेरे पेषे के पूर्णतया विपरीत इस लेखन कार्य के लिये इस परिषोधित प्रतिलिपि के साथ उनके द्वारा प्रेषित प्रषंसा टिप्पणी को मैं उत्साहवर्धन से अधिक मेरे प्रति छिपे हुए उनके अनुराग के रूप में देखता हूं। इसी प्रकार उडि़सा के केन्द्रपाड़ा जिले के केयर्बन्क मठ के पीठासीन महन्त योगी श्री षिवनाथजी महाराज द्वारा भी दो गम्भीर त्रुटियों की ओर इंगित किया गया जो निष्चय ही मेरे मार्ग को प्रषस्त करने वाली थी। इन सभी महानुभावों के प्रति आभार प्रदर्षन के लिये मेरे पास शब्दों की पूंजी नहीं है और वास्तव में मैं इन सभी के आभार से उ़ऋण भी नहीं होना चाहता।
आभार प्रकट करने की श्रंखला में अनेक लोग हैं जिन्होंने इस शुष्क और नीरस विषय में मेरी लेखन तृष्णा को न केवल जागृत बनाये रखा वरन राजस्थान पत्रिका में आलोच्य सामग्री प्रकाषित होने से लेकर अधतन अनेक अवसरों पर मेरी निराषा, कुण्ठा और खीझ को सहकर भी मुझे जब और जिस प्रकार के सहयोग की आवष्यकता हुर्इ उन्होंने कभी भी मुझे अवसर नहीं दिया कि मैं उन्हें कोर्इ उपालम्भ दे सकूं। ऐसे अवसर भी आये जब कोर्इ तर्क अथवा विचार आया और मैं रात को उठकर तुरन्त ही उसे लिखने बैठ गया। मेरी तन्मयता तब टूटती जब चाय का प्याला चुपके से मेरे सामने आ जाता। निषिचत रूप से मैं मेरी पतिन का आभारी हूं जिसने अपने दाम्पत्य, पारिवारिक अथवा किसी भी प्रकार के अधिकार को मेरे इस वैचारिक संघर्ष और अपने आप से जूझने के मध्य नहीं आने दिया। मेरी पुत्रियों ने मेरे सभी दस्तावेजों को इतना सलीके से रखा कि एक शब्द मात्र कह देने पर वांछित सामग्री क्षणभर में उपलब्ध हो जाती। आरंभिक दिनों में समस्त लेखन कागज पर किया गया लेकिन कम्प्यूटर अपरिहार्य होने पर एक साधारण कम्प्यूटर खरीद कर फलापी में ले जाकर अपने कार्यालय से प्रिण्ट निकालता। कालान्तर में अच्छा कम्प्यूटर ले लिया किन्तु वायरस के कारण अनेक बार मुषिकलें हुर्इ और मेरी निराषा ने मुझे असन्तुलित भी किया। ऐसे में मेरे पुत्रों ने अपने अध्ययन को छोडकर समस्त सामग्री को पुन: टंकित किया। हालांकि इसका लाभ भी हुआ कि उनके कम्प्यूटर ज्ञान का स्तर ऊंचा हो गया। इसी प्रकार मेरे अधिवक्ता भान्जे उमेष सारस्वत ने मेरे लेख को प्रबुद्ध लोगों के मध्य चर्चाएं कर उनका मौन एवं अघोषित समर्थन व सराहना प्राप्त कर मुझ तक पहुंचार्इ। इससे मेरा मनोबल बढा क्योंकि मैं किसी से चर्चा करता तो मेरे पास सभी तथ्य, परिसिथति और तर्क होने के कारण वादविवाद अथवा विचार विमर्ष में मैं अपना पक्ष प्रस्तुत करने में अधिक सषक्त था किन्तु उमेष मेरे तथ्यों व तर्कों के अतिरिक्त अपनी प्रज्ञा से एक सीमा तक ही मेरे मत का समर्थन कर सकते थे।
इस क्रम में मैं यह उल्लेख करना अपना दायित्व समझता हूं कि सूडान प्रवास के दौरान ही मेरी ही तरह प्रतिनियुकित पर काम कर रहे एक श्रीलंका निवासी सिविल इनिजनियर राघवन (पूरा नाम याद नहीं) से वार्ताओं में श्रीलंका में नाथ परंपरा होने और इस संबंध में बहुत समृद्ध साहित्य होने का पता चला। उसने कुछ शोध पत्र भी मुझे दिये जिनकी किंचित और प्रासंगिक चर्चा नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति और उसके प्रारमिभक आचार्य नामक अध्याय में की है। निषिचत रूप से मैं उस इनिजनियर का आभारी हूं किन्तु खेद है कि मैं उसके बारे में कोर्इ अधिक जानकारी इन पंकितयों में नहीं दे पा रहा। इसी प्रकार प्रतिनियुकित से अवकाष के दौरान काहिरा के गीज़ा पिरामिडों की यात्रा के दौरान गार्इड द्वारा उसके पेषे के सामान्य अनुक्रम में उसके द्वारा बतायी गयी बातों में पिरामिडों के रहस्य की चर्चा अनजाने ही मेरी रूचि के विषय से संबद्ध निकली। मेरे द्वारा इच्छा व्यक्त करने पर उसने दूसरे दिन पिरामिडों की संरचना का तीन पृष्ठों का एक विवरण मुझे दिया जिसका सार भी नवनाथ चौरासी सिद्धों के अध्याय में वर्णित किया है।
इस सम्प्रदाय के संबंध में महामना डा0 पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, सोहनसिंह सोलंकी, पणिडत रामप्रसाद शुक्ल, आचार्य रजनीष और पाश्चात्य विद्वानों में जार्ज डब्ल्यू. बि्रग्स, गियर्सन व टेरीसरी के शोध कार्य के समक्ष इस तुच्छ रचना की ना तो आवश्यकता थी ना कोर्इ महत्त्व है। इसीलिये नाथयोगियों की वेषभूषा, गुरूओं के प्रकार (चोटी गुरू, चीरागुरू, मन्त्रगुरू, उपदेष गुरू आदि) और षिष्यों का नामकरण (प्रेमपटट, राजपटट और जोगपटट) जैसे विषयों के तथ्य एवं जानकारी एकत्रित करने के पश्चात भी हमने इन विषयों को समिमलित नहीं किया है। फिर यह विषय इतना विशाल है कि, इसके एक-एक तथ्य पर एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है। सर्वोपरि तथ्य यह है कि, गोरक्षनाथ और उनके द्वारा प्रवर्तित नाथ सम्प्रदाय के संबंध में तथ्यात्मक जानकारी इस भू-मण्डल में इस तरह बिखर कर खो गयी है कि, नेपाल नरेश पृथ्वीनारायण शाह को वरदान और अभिशाप की कथा की तरह नित्य नये तथ्य सामने आ रहे हैं। बडे़-बडे़ विद्वान लेखकों के शोध भी इस विषय की एकमुश्त जानकारी दे पाने में असमर्थ रहे हैं, फिर मैं तो एक नौकरीपेशा और पद सोपान के क्रम में बहुत नीचे की सीढी पर सेवा के दायित्व से सीमित समय व संसाधनों वाला सामान्य व्यä हिूं। इसलिये जानकारी के प्रयास मेरे पेशे के अनुरूप नहीं होने से इस ग्रन्थ में तथ्यों की कमी स्वाभाविक है। इस सम्प्रदाय का अनुयायी होने के कारण कथित प्रतिस्पर्धी सम्प्रदायों के प्रति मेरी भाषा व शैली में उग्रता का दोष हो सकता हैं, किन्तु इतना अवश्य है कि, जो भी तथ्य दिये गये हैं वे वेद, स्मृति, धर्मयुä प्रमाणित वचन कहने वाले महापुरुषों, निश्छल-निर्लिप्त व निष्पक्ष जन साधारण की किंवदन्ती व परम्पराओं का आधार लिये हुए है। इन तथ्यों को अपने पेशे के अनुरूप तर्क के प्रकाश में जांचने-परखने का प्रयास नितान्त रूप से व्यäगित इसलिये नहीं है कि, जनवरी, 1996 से निरन्तर इस विषय की चर्चा के दौरान इस सम्प्रदाय के वर्तमान पीठाधीश्वरों के अतिरिä स्वतन्त्र लेखक, समीक्षक और अधिवäाओं से होती रही। नाथ सम्प्रदाय से संबद्ध और सत्य कहें तो हितबद्ध व्यäयिें की सहमति को विस्मृत कर दें तो भी अन्य किसी के द्वारा कोर्इ तार्किक खण्ड़न नहीं किया जा सका। बलिक अधिकांश का तो मानना यह रहा कि आमेर के इतिहास के नव प्राकटय से जोधाबार्इ के संबंध में सदियों से चली आ रही भ्रांति समाप्त होगी और जयपुर राजघराने पर लगे हुए लांछन का समापन होगा।
अपनी बात समाप्त करने से पूर्व कहना चाहूंगा कि सम्पूर्ण मानव समाज को नाथ सम्प्रदाय के योगदान और नाथयोगियों की सिद्धि व चमत्कारों से इस धरा का प्रत्येक कण कोर्इ न कोर्इ कथा समेटे हुए है। इसी सम्प्रदाय और सिद्ध योगियों के आशीर्वाद से समाज के सभी वर्ण किसी पक्षपात व लोभ-लालच के बिना समानरूप से लाभानिवत हुए और यह क्रम आज भी जारी है। वर्ण, वर्ग, जाति, स्थान, वंश, लिंग, जन्म और कर्म भेद किये बिना मानव मात्र इस सम्प्रदाय में समिमलित व दीक्षित होने के योग्य व अधिकारी है। समाज में पदलिप्सा, राज्याश्रय की लालसा, सम्पत्ति पर आधिपत्य की इच्छा, दूसरे को हीन दर्शाने की चेष्टा और गुरुगíी पर ब्राह्राणों के समान जाति व वंशवाद जनित झगडों का कोर्इ स्थान नहीं है। पात्रता रखने वालों मेें भी श्रेष्ठ व योग्य शिष्य को ही गुरुगíी पर आसीन किया जाता है। स्नेह, सौहार्द, संयम, समानता व साम्य, और समाज में चरित्र की उज्ज्वलता नाथ-योगियों का प्रथम मनोभाव है। माया, मदिरा, मादा, मैथुन और मांस कुछ गृहस्थ योगियों में तो स्वीकृत है क्योंकि उन पर उनकी मूल जाति का प्रभाव है। विरक्त नाथयोगियों में ये पंच मकार अपवाद स्वरूप तो मिल पायेंगे, किन्तु इनके कारण अब तक कोर्इ विवाद, धार्मिक पद या स्थान को लजिजत करने का कोर्इ प्रकरण सामने नहीं आया। नाथ सम्प्रदाय की इन विशेषताओं का कुछ अंश अन्य धार्मिक समुदायों में दृष्टव्य है। मुसिलम सम्प्रदाय की किसी भी जाति (शेख, कुरैश, पठान जैसे उच्च अथवा भिशित, नार्इ, नीलगर जैसे निम्न) का सदस्य हज कर आने पर ‘हाजी क़ुरान को कण्ठस्थ कर लेने पर ‘हाफिज इसी प्रकार मौलाना, मौलवी, मुतवली तथा इसी प्रकार र्इसार्इ मत में र्इसा मसीह की शिक्षा और सिद्धान्तों को पूर्णत: अंगीकार करने वाला ‘पादरी, बुद्ध के पंचशील आदशोर्ं को अपनाने वाला ‘बौद्ध भिक्षु और ‘लामा आदि धार्मिक पदों का अधिकारी व विशेष व्यä हिे जाता हैं, किन्तु हिन्दू मतावलम्बी निम्न जाति का व्यä सिंस्कृत, वेद और शास्त्रों का मर्मज्ञ होकर भी धर्मगुरु तो दूर धार्मिक पद का अधिकारी भी नहीं हो पाता। यदि कोर्इ निम्न जाति का व्यä अिपनी विद्वत्ता के कारण किसी धार्मिक पद के लिये अपरिहार्य हो जावे तो उसे किसी न किसी प्रकार ब्राह्राण सिद्ध किये जाने का प्रयास किया जाता है। उदाहरणार्थ रामायण व महाभारत में मां के नाम से पहचाने जाने वाले सुमित्रा नन्दन, देवकी नन्दन की तर्ज पर वेदव्यास को मछली की दुर्गन्ध वाली केवट कन्या उनकी माता के नाम पर सत्यवती नन्दन नहीं कहा गया। डाकू रहने तक रत्नाकर को निम्न जाति का व्यä किहा जाता रहा और वाल्मीकि होते ही उन्हें ब्राह्राण सिद्ध किया जाने लगा। योगी गोरक्षनाथ के सन्दर्भ में देखा जावे तो माता-पिता का पता नहीं होने और जनसाधारण को मानव मात्र समझकर समानता की तरफदारी करने तक वे निम्न जाति के व्यä किहे जाते हैं और जब योगारूढ़ होकर उनमें एक चमत्कारी व्यäतिव का प्राकटय होता है, तो अवध में वषिष्ठ गोत्र के ब्राहमण परिवार में सरस्वती नामक बांझ महिला को किसी योगी द्वारा अभिमंत्रित भभूत देने और भभूत से बच्चा पैदा होने की बात पर उपहास का पात्र बनने से बचने के लिये उसे गोबर के खडडे में फेंक देने की कथा रची जाकर उनके ब्राह्राण कुल से संबद्ध होने की सुगबुगाहट प्रारंभ हो जाती है।
धार्मिक स्थानों पर काबिज होने का परिवारवाद का सिद्धान्त जितना ब्राह्राण और पुरोहितार्इ कार्य करने वालों की मानसिकता में है उतना अन्यत्र कहीं नहीं है। षंकराचार्य का पद सात षताबिदयों से भी अधिक समय तक केवल इसलिये रिä रहा कि दक्षिण भारत के अîयर गोत्र के ब्राह्राण परिवार में कोर्इ योग्य व्यä इितने वषोर्ं तक नहीं हुआ। परिवार बढ़ जाने पर पूजा के अवसर (औसरा) की कल्पना और विशेष अवसरों पर धार्मिक स्थान से होने वाली आय को लेकर होने वाले झगडे़ इसी वर्ग की देन है। वैसे तो ऐसे असंख्य धार्मिक स्थान हैं जिनके स्वामित्व संबंधी वाद देश भर के थानों, तहसीलों और न्यायालयों में विचाराधीन हैं लेकिन वर्ष 2005 में कांचिकामकोटि पीठ के शंकराचार्य का हत्या के मामले में फंसना, ब्रह्राा मनिदर पुष्कर की गíीनशीनी को लेकर होने वाला झगड़ा और वर्ष 2006 में गलतापीठ जयपुर के पीठाधीश्वर श्रीदामोदराचार्य के स्वर्गवास के पश्चात रामनन्द व रामानुज सम्प्रदाय के संन्यासियों (कोर्इ अन्य संज्ञा प्रयोग नहीं कर सकने की विवशता है) के मध्य इस पीठ पर काबिज होने के लिये होने वाले झगडे़ इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण है। वैसे इस सत्यता के उदाहरणों की संख्या इतनी अधिक है कि केवल नाम दिये जाने पर भी ऐसे नामों का एक शब्दकोष तैयार हो सकता है।
मैंं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि पारंपरिक रूप से इस प्रकार के शोध पत्रों में सन्दर्भ ग्रन्थों का उल्लेख किया जाता है। चूंकि प्रस्तुत सामग्री पहले से प्रकाषित किसी विषय वस्तु की पुन: अक्षरष प्रस्तुती नहीं है वरन मेरे संंज्ञान में आयी जानकारियों के संबद्ध में व्यकितगत टिप्पणी अथवा तथ्यों की व्याख्या है। वैसे भी टिप्पणी अथवा व्याख्या के साथ ही यथास्थान उस जानकारी के उदगम स्त्रोत का नाम दिया गया है जैसे श्रीमदभगवदगीता का श्लोक की संख्या लिखी गयी है तो यह सुस्थापित है और इसके लिये पृथक से सन्दर्भ ग्रन्थ की सूचि बनायी जाकर पृष्ठों की संख्या बढाया जाना मेरा उददेष्य नहीं है। अत: मेरे दृषिटकोण से सन्दर्भ ग्रन्थों की सूचि की आवष्यकता नहीं है। वैसे भी मैं कोर्इ व्यावसायिक लेखक नहीं हूं। पाठकों से विनम्र निवेदन है कि इस पुस्तक के अध्यायों को पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले ऐसे पृथक-पृथक स्वतन्त्र लेख समझें जिन्हें एकीकृत रूप से प्रकाषित किया गया है।
अन्त में निवेदन है कि सम्भव है कि, लिखित ऐतिहासिक साक्ष्यों के अभाव में इस पुस्तक प्रकट अनेक तथ्य को मान्यता नहीं मिले उल्टे तथ्यों के प्रकटीकरण से आहत होकर किसी व्यä,ि परिवार अथवा ब्राह्राण संगठनों का विरोध मुखरित हो और एक नये सम्प्रदाय अथवा जाति विद्वेष का सूत्रपात हो जावे। जाति आधारित इस राजनैतिक समय में ‘संघे शä किलौयुगे का मन्त्र उदघोष हो और कोर्इ अति उत्साही व्यä लिेखक के प्रति कोर्इ आक्रामक अथवा अशोभनीय कृत्य करे। लेखक का प्रयास और उíेश्य केवल सत्य को सामने लाना है। हम सदा-सर्वदा उस अवसर की प्रतीक्षा में हैं कि कोर्इ मान्य खण्डन प्राप्त हो सके। फिलहाल तो इतना ही कहेंगें कि नित्य-निरन्तर नये सत्य का प्रस्फुटन होता रहता है। जो कल तक सत्य था वह आज असत्य है और जो कल तक असत्य था वह आज सत्य है। विद्वानों ने पहले पृथ्वी को सिथर माना और सूर्य को इसकी परिक्रमा करने वाला बताया। आज का सत्य इसके विपरीत है। प्रगतिशील, विचारवान और विज्ञान व तर्क की कसौटी पर आश्रित रहने वाले महानुभाव अपने विश्वास का नवीनीकरण करने को उत्सुक व प्रयत्नशील रहते हैं, किन्तु जड़बुद्धि व्यä किी एक बार जो धारणा बन गयी उसे कोर्इ भी प्रमाण समाप्त नहीं कर सकता। शास्त्र इसमें प्रमाण हैं, कि-
वेदा: प्रमाणं स्मृतय: प्रमाणं धर्मार्थ युäं वचनं प्रमाणम।।
नैतत्त्रयं यस्य भवेत्प्रमाणं कस्तस्य कुर्यांद्वचनं प्रमाणम।।32।।
(अ0 45 कौमार खण्ड, स्कन्द पुराण)
अर्थात- जिसमें वेद प्रमाण और स्मृतियां प्रमाण और धर्म, अर्थ युä सत्य वäा सर्वज्ञ पुरुषों का वाक्य प्रमाण हैं। इन तीनों को जो नहीं जानतामानता उसके संशय को दूर करने के लिये कौनसा प्रमाण है।



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हिन्दू धर्म


ओम, हिन्दू धर्म का प्रतीक-चिह्न और पवित्रतम चिह्न है।

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